शाम
--
झील पर उतरी शाम आज भी
जाने क्यों मायूस नज़र आती है
अकेली है ,उदास भी, और चेहरे से परेशान भी
जाने किस ग़म में लिपटी नज़र आती है
मैं हूँ तन्हा और वह भी शायद
बस यही एक बात वो भी
कानो में चुपके से कह जाती है |
वो गलीयाँ ,वो मंज़र,वो उन दिनों की धूप
और कोई पुराना लम्हा लिए,आँसू भी बहाती है
क्या दूं मैं दस्तक उस वक़्त के दरवाज़े पर
उस घर के हर इन्सान की तो बस नब्ज़ डूबती नज़र आती है
कोई रखे न रखे मेरे पास तो अब भी है बाकी
वो यादें,वो लम्हे और वो हर शाम से कही कहानी भी है |
उन शामो को गुज़र तो गया है एक वक़्त लेकिन
पर जाने क्यों दिल में सुलगता सा एहसास आज भी है
एक दिन इस शाम के साथ मैं भी गुजर जाऊँगा
पर ख़ुशी रहेगी की वो सुलगते ,डूबते लम्हे मेरे साथ आज भी है
और मेरे गुजरने के साथ ही उस वक़्त से भी कह देना
आँखों में कैद है तू कभी नहीं पाएगा
मैं लौटूं या ना सही ,पर हर शाम के पास महफूज़ तू आज भी है |